- ओमिति ब्रह्म । ओमितीय सर्वम् ।।
(तैतेरीयोपनिषद् 1/8)
प्रणव (ऊँ) यह ब्रह्म है । ऊँ ही यह संपूर्ण जगत् है ।
- तस्य वाचकः प्रणवः ।
(पातंजलियोसूत्र 1/27)
उस परमात्मा का वाचक शब्द प्रणव (ऊँ) अर्थात् ओंकार है ।
- आत्मभैषज्यामात्मकैवल्यमोंकारः ।
(गोपथ ब्राह्मण / पूर्वभाग 1/30)
ओंकार आत्मा की चिकित्सा और आत्मा को मुक्ति देने वाला है ।
- ऊँ इति एत्त अक्षरं उद्गीथ उपासीत् ।
(छांदोग्य उपनिषद् 1 )
इस एक ऊँ अक्षर को श्रद्धाभाव के साथ ऊंचे स्वर से उच्चारण करने मात्र से अनेक प्रकार के लाभ मिलते हैं ।
- ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं य याति परमां गतिम् ।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 8/13)
मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष ऊँ इस एक अक्षररूप ब्रह्म का उच्चारण और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है ।
- सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पहं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ।।
(कठोपनिषद् 1/2/15)
सभी वेदों ने जिस पह की महिमा गाई, तपस्वी लोगों ने तपस्या करके जिस शब्द का उच्चारण किया, उसी महत्वपूर्ण शक्ति को मैं तुम्हें साररूप में बताता हूँ । हे नचिकेता! वेदों का सार, तपस्वियों का वचन, ज्ञानियों का अनुभव ‘ऊँ इति एतत्’ केवल ऊँ ही है ।
- ब्राह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा ।
स्त्रवत्यनोड्कृतं पूर्वं पुरस्ताच्च विशीर्यति ।।
(मनुस्मृति 2/74)
नित्य वेदाध्ययन के समय आरंभ में तथा अंत में सदा प्रणव (ऊँ) का उच्चारण करना चाहिए । ऊँकार का उच्चारण न करने से पहले का पढ़ा हुआ बाद में भूल जाता है यानि धीरे-धीरे विस्मृत होता है और आगे याद नहीं रहता ।
- अमृतं वै प्रणवः अमृतेनैव तत् मृत्युं तरति ।
तद्यथा मंत्रेण वा गर्त्त संक्रामेत् एवं तत्प्रणवेनी पसन्तनोतिः प्रणवः ।।
(गोपथ ब्राह्मण / उत्तरभाग 3/11)
ऊँ जीवन है, जीवन ऊँ के द्वारा मृत्यु को पार करता है । जैसे बांस के द्वारा खाई को लांघा जाता है, एसे ही ऊँ का सेतु बनता है ।
- युंजीत प्रणवे चेतः प्रणवो ब्रह्म निर्भयम् ।
प्रणवे नित्युक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित् ।।
(माण्डूक्योपनिषद् / आगमप्रकरण 25)
चित्त को ऊँ में समाहित करो । ऊँ निर्भय ब्रह्मपद है । ऊँ में नित्य समाहित रहने वाले पुरुष को कहीं भी भय नहीं होता ।
- तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 17/24)
ऊँ, तत, सत् – ऐसे यह तीन प्रकार में ही परम तत्व निहित है । इस कारण वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएं सदा ‘ऊँ’ इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं ।
- एतद्धयेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ।।
(कठोपनिषद् 1/2/16)
ऊँ अक्षर को जानकर मनुष्य जो कुछ चाहता है, जिसकी च्छा करता है, उसे वही मिल जाता है ।
- सर्वव्यापिनमोंकारं मत्वा धीरो न शोचति ।।
(माण्डूक्य उपनिषद / आगमप्रकरण 28)
सर्वव्यापी ऊँकार को जानकर बुद्धिमान पुरूष शोक नहीं करता ।
- अमात्रोंअनन्तमात्रश्च द्वैतस्योपशमः शिवः ।
ओंकारो विदितो येन स मुनिर्नेतरो जनः ।।
(माण्डीक्योपनिषद् आगमप्रकरण 29)
जिसने मात्राहीन, अनंत मात्रावाले, द्वैत के उपशमस्थान और मंगलमय ऊँकार को जाना है, वही मुनि है अन्य कोई पुरुष नहीं ।
- आपयिता ह वै कामानां भवति य एतदेवं विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्ते।।
(छान्दोग्य उपनिषद् 1/7)
जो भी प्राणी पूर्ण एवं दृढ़ विश्वास के साथ प्रभु की उपासना करता है और ‘ओम’ अक्षर का पाठ करता है, उसे निश्चय ही प्रभु-मिलन की राह मिल जाती है और वह अवश्य प्रभु को पाने में सफल हो जाता है । उसे हर काम में सफलता मिती है और बिगड़े काम बन जाते हैं ।
- तस्मैस होवाच एतद्वै सत्यकाम पर चापरं च ब्रह्म यदोंकारः ।
तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति ।।
(प्रश्नोपनिषद् /5/2)
ऊँ परब्रह्म परमेश्वर से प्रकट हुआ उनका स्वरूप है । इसी ओंकार की उपासना और चिंतन करके उसके द्वारा अपने इष्ट को चाहने वाला प्रभु का भक्त प्राणी उसे पा लेता है ।