- न वा उ एतन्म्रियसे न रिष्यसि ।
(यजुर्वेद 23/16)
आत्मा न कभी वरती है, न कभी नष्ट होती है ।
- तमेव विद्वान् न विभाय मृत्योः ।
उस आत्मा के परम तत्व को जो मनुष्य जान लेता है, वह मृत्यु से नहीं डरता ।
- त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।
(गीता 16/21)
काम, क्रोध और लोभ – ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे हैं, अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिए ।
- अपाड्प्राडेति स्वधया गृभीतोअमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः ।
ता शस्वन्ता विषूचीना वियन्तान्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् ।
(ऋग्वेद 1/164/38)
जीवात्मा अमर है शरीर प्रत्यक्ष नाशवान । सम्पुर्ण शारीरिक क्रियाओं का अधिष्ठाता आत्मा हैं, क्योंकि जब तक शरीर में प्राण रहते हैं, तब तक वह क्रियाशील रहता है । इस आत्मा के संबंध में बड़े – बड़े पंडित व मेधावी पुरूष भी नहीं जानते । इसे ही जानना मानवजीवन का प्रमुख लक्ष्य है ।
- योअयमात्मा इदममृतम् इदं ब्रह्म इदं सर्वम् ।
(बृहदारण्यकोपनिषद्2/5/1)
जो यह आत्मा है, यह अमर है, यह ब्रह्म है, यह सर्व है ।
- न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोअयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होने वाला है और न ही नाश होने वाला है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य सनातन और पिरातन है । शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता ।
- वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोअपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयानि नवानि देही ।।
(गीता2/22)
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दुसरे नए शरीर को प्राप्त होता है ।पुराने वस्त्र छोड़कर नए वस्त्र पहनने वाले व्यक्ति के शरीर में कोई परिवर्तन नहीं होता है, वैसे ही पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर ग्रहण करने वाला आत्मा भी वही रहता है, वैसे ही पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर ग्रहण करने वाला आत्मा भी वही रहता है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता ।
- नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।
(श्रीमद्भागवत 6/17/33)
आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु सुखा नहीं सकती ।
- न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियः स्वः परोअपि वा ।
आत्मात्वात्सर्वभूतानां सर्वभूतप्रियोहरिः ।।
(श्रीमद्भागवत 6/17/33)
भगवान् का कोई प्रिय, अप्रिय, अपना या पराया आदि नहीं है । उसके लिए सभी प्राणी प्रिय हैं, क्योंकि वे सबकी आत्मा हैं ।
- इन्द्रियाणी पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।
(गीता 4/42)
शरीर से इंद्रियां श्रेष्ठ हैं । इंद्रियों से मन और मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है, वह आत्मा है ।